गुरुवार, 2 सितंबर 2010

कहानी अंतिम सत्य

समकालीन भारतीय साहित्य में जन-फरवरी २००९ में प्रकाशित
 

 
 
गली में होने वाला शोर उसे जल्दी जगा देता था। उसकी इच्छा करती कि वो देर तक सोए और जब उठे तो एक गहरा संतोष मन में फलीभूत हो। पर यह कभी नहीं हो पाता, रात को देर तक नींद नहीं आ पाती। एक गहरी सकरी गली के अंतिम छोर पर उसका छोटा सा कमरा था। गली थी तो छोटी पर आवागमन थोड़ा ज्यादा ही रहता था, रात को देर तक चहल-पहल बनी रहती। कमरा सडक से बिल्कुल लगा हुआ था, लोग-बाग बात करते हुए निकलते तो काफी दूर पहले से आवाज सुनाई देती और निरंतर चलती रहती।
वो खाली था, एक शून्य सी स्थिति में, दो ही काम थे, सोचना और सुनना। सोचा भी कहां तक जाए, एक पल ऐसा आता। मन सोच से उकता जाता। विचारों के दायरे विस्तृत थे, पूरी तरह कल्पनाओं पर आश्रित। कल्पनाऐं सुख देती थी लेकिन उसका यथार्थ जीवन बहुत भिन्न था, बिल्कुल दूसरे छोर पर खड़ा हुआ। कल्पनाऐं यथार्थ से अलग पाकर थक जाती और वहीं कोने में गिर पडती। वो भी शायद इतना क्लांत हो चुका था कि उन्हें समेटने की कोशिश नहीं करता। अलसाया सा देखता रहता, कल्पनाऐं टुकड़े -टुकड़े होकर कमरे में इधर-उधर विचरण करती रहती।
ऐसे में फिर पड़ा-पड़ा कमरे के बाहर गुजरी दुनिया की आवाजों को सुनता रहता। गली छोटी थी, आवाज गुजरते हुए लोगों के पदचापों से प्रांरभ हो जाती। ठक-ठक, उसे लगता कोई आ रहा है। दूर से आवाज धीरे-धीरे आती, फिर कमरे के पास आकर तेज हो जाती..... जब दो जने होते तो उनकी बातें पूरी तरह सुनाई देती। कमरे के सामने तो बस ऐसे लगता, मानो वो भी उन्हीं की बातों में शामिल हो, और वो अक्सर हो भी जाता था, लोग तरह-तरह की बातें करते.... पति-पत्नी, दोस्त, रिश्तेदार पड़ौसी.... वो बात के अंतिम सूत्र को पकडता और शुरू हो जाता..... लोग आते...निकल जाते... और वो पलंग पर पड़ा-पड़ा बातों का समाधान तलाशता रहता।
कभी-कभार कोई मोटरसाईकिल या स्कूटर निकलता, तो दरवाजे की सेंध से प्रकाश घुसकर चारपाई को सरोबार कर देता। एक प्रकाश की किरण सेंध से प्रवेश करती और फर्श से समानान्तर लकीर खींचती हुई दीवार पर चढ कर छत को छुकर पुनः दरवाजे की सेंध से मिल जाती। इंजिन की भड भड कमरे में भर जाती.... वो थोडा परेशान हो जाता, लेकिन उसे पता था कि यह क्षणिक है... कुछ पल में गाड़ी निकल जाती। फिर सन्नाटा घिर आता।
कैसे माहौल में रह रहा है वो.. कीड़ों की तरह बिलबिलाते लोगों की भीड का एक हिस्सा बनकर रह गया है, कभी कलात्मक फिल्मों को नई दिशा देने वाला महान कलाकार आज एक छोटे से कस्बे की तंग गली में पड़ा हुआ है, कलात्मक फिल्मों में यथार्थ के साथ दर्शन का समावेश का उसीका नया प्रयोग था। जब बंबई में यह उछली तो सभी कला-समीक्षकों की जबान पर उसी का नाम था, काफी की चुस्कियों व शराब की सिप.. सभी लोग इस प्रयोग की चर्चा करते मिलते.... वे भी क्या दिन थे.... कालेज की शिक्षा पूरी करके फिल्म-डिप्लोमा ज्वाईन किया, तो बस उसकी कल्पनाओं के पंख लग गए। उसका भी दिमाग अजीब ही था, जिन सिदांतों पर चलकर लोग सफलता प्राप्त कर रहे थे वो कभी उसे आकर्षित नहीं कर पाते थे, बस उसे लगता था कि वो परिपाटी से अलग होकर कुछ कर दिखाए। अलग, वो भी ऐसा, जो दुनिया में कभी किसी ने नहीं किया हो।
उन दिनों कलात्मक फिल्मों का बोलबाला था। कुछ हिन्दुस्तानी फिल्में अंतर्राष्टीय पटल पर छाई थी, कुछ कलाकारों को पुरस्कार से नवाजा गया था। पटल को छूने की ललक से एक नई सोच पूर्णतः प्रभावित था। वो इस बात को जानता था कि कुछ अलग हटकर दिखाने की सोच को मीडिया फौरन लपकता था और परिणाम में हाथोंहाथ प्रसिदि के शिखर को छूते हुए ढेरों वाहवाही लूटना। लेकिन नरेन इस बात को पूरी तरह भूल गया कि इस जमाने में अगर कोई प्रयोग व्यवसायिक स्तर पर सफल रहे तो ही युग उसे सार्थक मानता है अन्यथा उठाकर ऐसी जगह फेंकता है कि प्रयोगकर्ता स्वंय को भी नहीं पहचान पाता।
कभी-कभी उसे लगता है कि उसकी सारी स्मृति उस साल पर आकर ठहर गई है। सारे जीवन के सुनहरे पल उसी साल में सिमटकर रह गए। बाद में वो बस......।
वो उठकर खड़ा हो गया। सामने लगे शीशे में उसने अपनी शक्ल देखी। बड़ी हुई दाडी, सफेद होते बाल, अंदर धंसे हुए गाल, हडिड्‌यां निकली हुई..... तन भी सूखकर कांटा हो गया है। शरीर भी क्या करे... अब तो यह हाल हो गया है कि खाने के लिए उसे दर-दर भटकना पडता है। अभी ही दो दिन हो गए, खाना खाए हुए.... ढाबे पर पहले ही तीन महीने के उधार की वजह से खाना देना बंद कर दिया। कुछ पहिचान के लोग थे, वहां चला जाता था, पर अब तो अब कन्नी काट जाते हैं। सचमुच कैसा देश है यह, क्या हो रहा है उसके साथ.... एक इतने बड़े चिंतक का यह हाल, आज मेरा चिन्तन कैसा अदभुत है, कलात्मक फिल्मों के साथ दर्शन का मिश्रण.... कांफ्रेंस हाल में जब उसने इस विषय पर पर्चा पड़ा था तो दो \ विदेशी पत्रकारों ने कितनी रूचि दिखाई थी, लेकिन भारतीय.... वे तो बस अपने फंडों के पीछे भागते नजर आते हैं, कौनसी हीरोईन क्या खाती है, क्या पहनती है, कहां जाती है, ये ज्यादा महत्वपूर्ण है।
अजीब देश है, अरे उसने तो अपना सारा जीवन इन्हीं बातों पर न्यौछावर कर दिया। पिता की मृत्यु हुई, वे सरकारी कर्मचारी थे, मां ने बहुत कहा अनुकंपा के आधार पर नौकरी करने को पर वो भला कैसे रूक सकता था। दुनिया को एक नई दिशा देने का जुनून जो उस पर सवार था। वो बंबई चला गया। एक छोटी सी नौकरी कैसे कर सकता था। उसका स्वतंत्र व्यक्तित्व बंधन में कहां बंध सकता था। एक शादी की बात भी आई थी, लेकिन उसने मना कर दिया, एक कस्बाई मानसिकता वाली लड़की से शादी उसे लगा था किसी ने उसके साथ मजाक कर दिया हो। वो कैसे एडजस्ट करेगा, उसकी कल्पनाऐं तो आज भी हालीवुड से कमतर नहीं थी। ऐसे में .....
वो उठकर पीछे आंगन में चला गया। धूप छत से उतरकर नीचे तक चली आई थी। छोटा सा चौक था, मकान भी अधिक बड़ा नहीं था, पर जितने कमरे थे, उतने ही किराएदार थे, छोटे-छोटे धंधों से जुड़े हुए, कोई सब्जीवाला था, कोई मकान चुनने वाले कारीगर थे तो कोई बाल-बच्चों के साथ। मकान-मालिक के वहां न रहने से सभी अपनी मर्जी के मालिक थे, किसी की किसी पर कोई बंदिश नहीं थी।
कभी-कभी नरेन घोष उस आंगन में बैठा-बैठा अपने बारे में सोचता तो उसे लगता वो कहां आकर ठहर गया है। किन विचारधाराओं के लोगों के बीच पड़ा हुआ है। लोग उसे असामान्य मानकर व्यवहार करते तो एक पीड़ा की लहर समूचे शरीर को भिगो जाती।
'कहां उसका महान दर्शन और कहां यह माहौल, इसीलिए इस देश की प्रतिभाऐं यहां नहीं रूकती, वे सही करती है। आखिर यहां रूककर करे भी क्या। वो जाने कैसे पड़ा है।'
तभी दांई ओर रह रहा गोपाल हाथ में चाय लिए उसके सामने बैठ गया। उसने भी सुबह से चाय नहीं पी थी, बहुत मन कर रहा था, चाय पीने का। पर गोपाल ने उससे एक बार भी नहीं पूछा। वो कप हाथ में लिए धीरे-धीरे सिप कर रहा था। कप में से उठती हुई भाप से उसने अंदर तक चाय के स्वाद को महसूस किया। उसने थूक अंदर गटका। 'क्या करे, अब तो यह हालत हो गई। जिस आदमी की इतनी पूछ होनी चाहिए थी। वो चाय तक के लिए तरस रहा है और फिर कम से कम फार्मल तो होना ही चाहिए। अरे एक बार पूछ ही ले, मैं कौनसा पी ही रहा था। पर इनका भी क्या करें, बिना पड़े -लिखे मजदूर है। क्या जानें.... जंगली है... बिल्कुल जंगली। पर जंगली यहां ही नहीं है, बड़ी जगहों पर बड़े जंगली बैठे है, वे तो पूरे आदमखोर है। वे इनसे बहुत बड़े है। ये तो अपने में ही मगन है, अपने में ऐसे जी रहे है, पर दूसरों को नुकसान नहीं पहुंचाते। पर वहां बंबई में उसके साथ क्या नहीं हुआ, सामने मीठी-मीठी बातें करने वाले, पीछे से इतनी गहरी खाइयों में धकेला है कि वो जीवन भर उस दलदल से नहीं निकल पाया।
बस एक बार असफल क्या हुआ। लोगों ने उसे पहचानना ही बंद कर दिया। कहीं से भी निकलता, लोग कन्नी काट जाते। जहां पहले वो काकटेल पार्टी की शान था, एकदम से उसे आउट कर दिया गया। धीरे-धीरे नरेन की हालत विक्षिप्तों जैसी हो गई। बड़े सपने, बड़े खवाब, बड़ी उपलब्धियां, सभी हकीकत की चट्टानों से टकराकर चूर-चूर हो गई। दुनिया के लिए मानो उसका कद, उसकी औकात सभी छोटे हो गए, वहां बड़े-बड़े लोगों के फंतासी जीवन में उसका कोई काम नहीं था।
पर वह यथार्थ को नहीं स्वीकार पाया। उसे लगा कि लोग उसके नए दर्शन को समझ नहीं पा रहे है। ये तो कितना मौलिक है, बिल्कुल अनूठा.... उसने कितने मौलिक कोण पर काम किया है। उसे लगा कि लोगों का चिंतन एक खास जगह आकर रूक गया है। अगर कोई दो कदम आगे और सोचे तो बस फिर सब कुछ समझ में आ सकता। वो अपनी स्क्रिप्ट लिए जगह-जगह घूमता रहता, पर नतीजा सिफर ही रहा, पहले लोगों ने न मिलने के बहाने बनाए, पर बाद में जब वो अधिक ही पीछे पड़ा , तो उसके साथ बत्तमीजी भी की गई।दूसरी ओर बंबई में खाने-पीने की दिक्कतें बढ गई।
तो एक दिन नरेन को बम्बई छोडने का निर्णय लेना पड़ता . पर उसका चिंतन वहीं अटका हुआ था कि एक दिन उसे दुनिया को अपने दर्शन से हिलाकर रख देना है। आज वो जा जरूर रहा है पर एक दिन वो मान्यता लेकर ही इस जगह वापस आएगा। फिर उन सब लोगों को देख लेगा....।
कस्बे में आगमन पर शुरू-शुरू में उसका स्वागत हुआ। उसे बहुत अच्छा लगा। उसे लगा महानगरों की तुलना में ये लोग कितने सरल है। पर जैसे ही नरेन के आर्थिक हालत जगजाहिर हुए, लोग मुंह फेरने लगे। फिर भी कस्बाई मानसिकता में प्रारंभ में नरेन के किस्से बहुत चले। गंगापुर छोटी सी जगह थी, फिल्मों के बारे में कौतूहल बहुत था, लोग छोटी से छोटी चीजें जानना चाहते थे।पर एक तो नरेन का कला फिल्मों से जुड़ाव और बड़े कलाकारों के समकक्ष अपने आप को रखने से ये किस्से अधिक नहीं चल पाए। उसकी फटेहाल स्थिति और बड़ी-बड़ी बातें, दोनो विरोधाभासों को लोग पचा नहीं पाए और फिर अंत में वो एक हास्यापद चरित्र से अधिक नहीं उभर पाया।
पर नरेन तो जैसे किसी दूसरी दुनिया में विचरण कर रहा था। लोगों की टिप्पणियां और मजाक का निचोड उसने यही निकाला कि दुनिया में सब लोग एक ही तरह के हैं, चाहे महानगर हो, नगर हो, कस्बा हो या गांव हो। किसी भी महान व्यक्तित्व को यह सब झेलना ही पड ता है। उसने सब कुछ सहा, बर्दाशत किया, तकलीफ उठाई, पर अपने स्वंय दवारा बनाई गई छवि को बिल्कुल खंडित नहीं होने दिया।
यहां भी रोजी-रोटी के लिए कई छोटी-छोटी नौकरियां की। पर सपनों की मृग-मरीचिकाओं ने कभी यथार्थ के धरातल पर टिकने नहीं दिया। धीरे-धीरे हाल यह हो गया कि जहां जो मिले खा लिया, पी लिया, रह लिया। यथार्थ जीवन का दिन-प्रतिदिन पराभव हुआ, पर सपनों का आविर्भाव निरंतर बढता रहा।
अचानक एक बच्चे ने उसके पास आकर तंद्रा भंग की। सामने बिहारी मजदूर परिवार था, उसका यह छोटा बच्चा अक्सर उसके पास आ जाता था। वो उसे दुलारने लगा, उसके हाथ में बिस्कुट के दो टुकड़े थे, वो निरीह भाव से उसे बिस्कुट खाता हुआ देखता रहा, उसका बहुत मन हुआ कि बच्चा एक बिस्कुट उसे दे दे। पर उसने नहीं दिया। बच्चा धीरे-धीरे बिस्कुट कुतर रहा था। इस हरकत से उसकी भूख प्रबल हो उठी। दो दिन से उसने कुछ नहीं खाया था। उसकी अंतडिया व्याकुल हो उठी थी। उससे सहन नहीं हुआ और उठकर कमरे में आ गया।कमरे में सभी डिब्बों को पुनः खंगाला। पर उनमें कुछ नहीं था। थककर शिथिल सा पलंग पर गिर पड़ा। सर्दी थी, पर अब उसमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि फटे कम्बलों की तह बनाकर ओढ ले। बहुत देर तक वो शून्य में ताकता रहा। फिर विचारों में खो गया।
उसका जीवन कैसा हो गया है। इस सदी के महान चिंतक की यह दशा कि शरीर को एक समय के भोजन को तरसना पड रहा है। शायद यही महान लोगों की नियति है, उनके हिससे में युग से पीड़ा के अलावा कुछ और नहीं आया है। पड़े-पड़े उसने छत की पटिट्‌यों की ओर देखा, बरसों से पुताई न होने के कारण कमरा बदरंग हो रहा था, प्लास्टर जगह-जगह से उखड़ा हुआ था, मकडियों के जालों की भरमार थी।
अचानक उसे लगा कि वो इस युग से इतनी अपेक्षा क्यों कर रहा है। लोगों के न समझने से क्या उसके कार्य का मूल्य कम हो जाएगा। क्या उसकी देन का मूल्य केवल इसलिए है कि वो लोगों द्‌वारा सराही जाए। उसका दर्शन वेदों की तरह नित्य है। उसे कोई नष्ट नहीं कर सकता। और फिर जब ऐसा है तो वो क्यों इनसे अपेक्षा कर रहा है। वो क्यों न प्रकृति की गोद में जाए। बहती हुई नदी, चमकता हुआ सूरज, उडते हुए पंछी उसे बुला रहे है। वो यहां क्यों पड़ा है। उसके मन में आशा का संचार हुआ। वो एक झटके से उठा और बाहर निकल आया। भूख के मारे कदम नहीं उठ पा रहे थे। मन पर छाया हुआ नया उत्साह उसे आगे बढने में मदद दे रहा था।
नदी घर से अधिक दूर नहीं थी। जल्दी ही वो वहां पहुंच गया। नदी का किनारा बालुई था। उसने चप्पल उतार दी। बालू की ठंडक उसके मन को छू गई। थोड़ी देर वो बालू रेत पर चलता रहा। फिर एक जगह बैठ गया। सामने नहीं का पाट अधिक चौड़ा नहीं था। नदी के पार दूर तक खेत फैले हुए थे। दूर-दूर तक फैली हुई हरियाली, छोटे-छोट टीले, कंटीले बबूल और मंद-मंद चलती हुई ठंडी हवा, पर धूप अच्छी-खासी खिली हुई थी। वो प्राकृतिक दुर्श्य में खोगया। पर यह सिलसिला अधिक देर तक नहीं चला, क्योंकि पेट भूख से कुलबुला रहा था। अब उसे सहन नहीं हुआ।
दांई ओर एक छोटा सा श्मशान था। नदी से हटकर। लोग क्रियाकर्म करते और फिर पास में वहीं स्नान कर लेते। नदी पर छोटा सा घाट भी बना हुआ था। वो बालू पर चलता हुआ शमशान के भीतर आ गया। दस-पन्द्रह लोग एक जगह अस्थियां चुन रहे थे। आज शायद किसी का तीसरा था।
उसे हंसी आ गई। एक दिन उसका जीवन भी ऐसे ही समाप्त हो जाएगा। पर उसकी अस्थियां कौन चुनेगा। उसका तो कोई भी नहीं है। लेकिन इन चीजों से क्या फर्क पड़ता है। जो मर गया उसकी अस्थियां कोई चुने या न चुने। मरने वाले की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड ता।
सामने लोगों ने अस्थियां चुन ली थी। वो उन्हें बाल्टी में धोकर एक लाल थैली में रखते जा रहे थे। वहीं एक आदमी ने गोबर से लीपकर कलश रख दिया था। दूसरा आदमी थैलियां खोलकर सामान पत्तल में रखता जा रहा था। एक ओर कंडे जलाकर हांडी में चावल पक रहे थे। यह भी अजीब प्रथा है। अस्थियां चुनने के बाद मृतक की आत्मा को पत्तल में सभी चीजें, चावल, चाय, मिठाई, नमकीन, कचौरी आदि का भोग लगाया जाता है।
लोगों ने एक-एक करके भोग लगाना प्रांरभ शुरू कर दिया। कुछ ही देर में कार्य से निमटकर उन्होंने हाथ जोड़े और नदी की ओर चल दिए। अब वो शमशान में अकेला था। अचानक उसके मन में कौतूहल जागा, उसकी इच्छा हुई कि वो उस जगह को तो देखे कि आखिर वहां क्या-क्या है, मृत आत्मा के लिए भला लोग-बाग क्या करते है। वो धीरे से उठा और वहां पहुंच गया। अगरबत्तियों की सुगंध से स्थान महक रहा था। एक ओर फूलमाला, दीपक व कलश पड़ा था, कंडों में से हल्का-हल्का धुंआ उठ रहा था। गोबर से लिपी जमीन पर पत्तलें लगी थी, जिनमें चावल, कचौरी, समोसा, इमरती, बर्फी, गुलाबजामुन, फल व कई तरह की चीजें रखी थी। वो खड़ा-खड़ा उन्हें देखता रहा। एकाएक एक विचार उसके मन में आया और एक सिहरन की लहर सिर से लेकर पांव तक दौड़ गई। उसका हद्‌य जोरों से धडकने लगा, उसने आस-पास घूमकर देखा, दूर-दूर तक कोई नहीं था, न कोई मनुष्य , न कोई जानवर, कोई भी ऐसा नहीं था, जो उसे देख रहा हो। वो नितांत अकेला था बिल्कुल अकेला। वो आलथी-पालथी मारकर जमीन पर बैठ गया। पत्तल के बिल्कुल सामने....... दो दिनों से वो भूखा था।अब उसे कुछ नहीं दिख रहा था। उसने कचौरी उठाई और धीरे-धीरे खाने लगा। फिर मिठाई चखी, बहुत दिनों से इतना स्वादिष्ट भोजन नहीं किया था। आज तो सभी कुछ सामने मौजूद था। वो आहिस्ता-आहिस्ता खाता जा रहा था।
आज नरेन घोष के मन में कोई हलचल नहीं थी। कोई शिकवा-शिकायत नहीं था.... आज उसका मन उसके दर्शन से बिलकुल मुक्त था। उसे कोई गलतफहमी नहीं थी कि उसे इस दुनिया को कुछ देना था या किसी ने उसके साथ गलत किया। वो एक-एक करके सभी चीजों का स्वाद ले रहा था। स्वाद की इतनी गहन अनुभूति उसे पहले कभी नहीं हुई थी। सामने सूरज सिर पर मुस्करा रहा था। नदी शांत , बिल्कुल शांत बह रही थी और उसका मन भी शांत था। वो सिर्फ खा रहा था और कुछ नहीं कर रहा था।

2 टिप्‍पणियां:

  1. बधाई ------

    आपका रचना-संसार विश्‍व चौपाल पर आकर विस्‍तार को प्राप्‍त होगा।

    ब्‍लॉगिंग जगत में आपका स्‍वागत है।


    निरंतर आपको पढ़ते रहेगें।

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  2. आदरणीय शरद जी । आपकी कहानी ऐसी जहन में उतरी है कि...मैं शब्‍दों में बयान नहीं कर सकता । आपने बहुत अच्‍छा किया जो अपनी कहानियों का ब्‍लॉग बनाकर हम सबको जानने का अवसर प्रदान किया । हमारी शुभकामनाएं सदा आपके साथ हैं । आपकी कहानियां और आपका विभिन्‍न विधाओं में लेखन की हम मांग करते हैं । आभार ।।

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